देखा कुछ गगन-चुम्बी इमारतें
अपनी शोख़ियों पर इतराती थीं
किसी गुफ्तगू में मशगूल थीं वो
पर मोटर के शोर में
आवाज़ें ग़ुम हो जातीं थीं
मैं ठिठका
सोचा
भला सीमेंट की ये मीनारें
क्यों हैं यूँ बदगुमान
क्या पा लिया इन्होंने
जिससे मैं हूँ अनजान?
पूछा
क्यों इस तरह अपनी ऊंचाई से तंज कसती हो
इंसान का घरौंदा हो
क्या इसलिए ख़ुद को आक़ा समझती हो?
वो मुस्क़ुरा कर बोलीं
अकेले ही यूँ बदज़ुबानी?
यहाँ है कौन तुम्हें अपना कहने को?
---सन्नाटा---
मैंने उस ख़ामोशी में खोजे
अपने पुराने साथी
बुलबुल, जुगनू, कोयल
पर सुना तो सिर्फ वो गन-शॉट
और ओट में छुपे कबूतरों की चीखें|
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